पहले ही बदलती ये तकदीर तो कितना सही होता
कभी गल जाती ये शमशीर तो कितना सही होता
कभी रुख रोक लेता बारूद की चिंगारी लब पे ही
कभी बदल जाती ये तस्वीर तो कितना सही होता
तेरे दिल की छुअन मेरी आँखों में ज़िंदा थी प्रिये
तुम सम्भाल पाती प्रेमनीर तो कितना सही होता
सन्नाटे की गहराई से पूछ लेना कि मैं कैसा था
कि तब ढलती शाम गंभीर तो कितना सही होता
सुन सुनके तेरा दर्द-ए-ग़म ऊब गया हूँ अनिल
ग़र ग़ज़ल गाती परायी पीर तो कितना सही होता
-अनिल पटेरिया
कभी गल जाती ये शमशीर तो कितना सही होता
कभी रुख रोक लेता बारूद की चिंगारी लब पे ही
कभी बदल जाती ये तस्वीर तो कितना सही होता
तेरे दिल की छुअन मेरी आँखों में ज़िंदा थी प्रिये
तुम सम्भाल पाती प्रेमनीर तो कितना सही होता
सन्नाटे की गहराई से पूछ लेना कि मैं कैसा था
कि तब ढलती शाम गंभीर तो कितना सही होता
सुन सुनके तेरा दर्द-ए-ग़म ऊब गया हूँ अनिल
ग़र ग़ज़ल गाती परायी पीर तो कितना सही होता
-अनिल पटेरिया
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