Monday 23 April 2018

रहा न इश्क हमें अपनी ज़िंदगी से कोई...

रहा न इश्क हमें अपनी ज़िंदगी से कोई।
क्यों करें शिक़वा किसी आदमी से कोई।  
यार मिला मेरा मुझसे अज़नबी बनकर ,
फिर क्यों वाश्ता हो उसी अज़नबी से कोई। 
सफर में जिसने सारे शज़र उजाड़े हैं ,
कोई आसरा न रखो उसकी बंदगी से कोई। 
सफर के अंत से पहले ही गिर गया , दिलबर 
न बने रिश्ता कभी ऐसे दिलनशीं से कोई।  
फ़िराक़-ए-ग़म का पहले जलवा तो देखे अनिल 
फिर भी रहे ताब तो करे इश्क हमी से कोई। 

-अनिल पटेरिया 

तो कितना सही होता !

पहले ही बदलती ये तकदीर तो कितना सही होता
कभी गल जाती ये शमशीर तो कितना सही होता
कभी रुख रोक लेता बारूद की चिंगारी लब पे ही
कभी बदल जाती ये तस्वीर तो कितना सही होता
तेरे  दिल की छुअन मेरी आँखों में ज़िंदा थी प्रिये
तुम सम्भाल पाती प्रेमनीर तो कितना सही होता
सन्नाटे की गहराई से पूछ लेना कि मैं कैसा था
कि तब ढलती शाम गंभीर तो कितना सही होता
सुन सुनके तेरा दर्द-ए-ग़म ऊब गया हूँ अनिल
ग़र ग़ज़ल गाती परायी पीर तो कितना सही होता

-अनिल पटेरिया 

MY TEAR !!

MY TEARS FALLEN FROM HEART
IN A LIVE CONCERT
OH ! YOU HAVE NOT LISTEN
ITS MY LOVE AND YOUR MISSING
HOW I FORGOT YOU MY DEAR
YOU ARE MY SMILE
YOU ARE MY TEAR
WHO GONNA LIVE WITHOUT YOU
HERE NOTHING LEFT WITHOUT YOU


#thoughtful_anil
#tears

Friday 6 April 2018

पाठक तुम बहुत अच्छे हो …


पाठक , तुम सुन सकते हो
सारे अनकहे भाव जो
शब्दों में पिरोता हूँ मैं !
पाठक , तुम महसूस कर सकते हो
मेरे वो अहसास जो
हँस हँस के रोता हूँ मैं !
पाठक तुम्हारे दिल में उठती होगी
वही हूक जो
मेरे दिल को चीरती है !
कितने अच्छे हो न तुम पाठक ,
कि समझ लेते हो शब्दों से ही सब कुछ -
वो भी जो कहा गया !
वो भी जो नहीं कहा गया !
जी लेते हो किसी सिरफिरे का ग़म ,
जो बस लिखता गया दिल की बेचैनी !
पाठक , तुम हम सब लेखक बिरादरी से बहुत ऊँचे हो -
क्योंकि तुम हो
वो कन्धा , जिसपे हम अपना सिर रखकर रोते हैं !
पाठक , तुम हो वो दोस्त
जो हमेशा होता है हमारे साथ
हँसने में , रोने में , पाने में खोने में !
उस अकेले कोने में जहाँ बैठकर बुनता हूँ ,
मैं कविता ,गज़ल , नज़्म बहर !
पाठक , जरा हमें बताओ कैसे संजो पाते हो इतना सब ?
ये हृदय की विराटता कहाँ से पाते हो ?
वैसे इक सत्य है पाठक ,
कि अगर तुम नहीं होते -
तो शायद हम नहीं होते !!
पक्का हम नहीं होते !!

-अनिल पटेरिया
फसल झुलस गई है
जल गए साथ में सपने 
कुछ मर गए अपने 
अपने !!
एक फसल के साथ
एक नस्ल झुलस गयी 
अकाल में अक्ल झुलस गई 
हमारी फसल झुलस गई है 
खाने की चिंता 
खिलाने की चिंता 
ढोरों को पानी पिलाने की चिंता 
मरियल गाय को जिलाने की चिंता 
पता नहीं किसी को 
हमारी हालत का  ज़िम्मेदार 
है कौन ?? 
पता है कौन ...
वह पूरी सभ्य जाति 
जो बैठी मौन !!


-अनिल पटेरिया 
पता कल बारिश हुई थी
आसमां से रिस रिस हुई थी
चार से सवा चार तक
की माटी गीली नहीं हुई
इससे ज्यादा तो पसीना
गिरता है खेतों में
आंसूं झिरता है रेतो में
बचपन याद आता है
की वो दिन याद आता है
बारिश चार नाहिं तो तीन दिन
लगातार रिम झिम रिम झिम
होया करती थी
मां ख़ुशी ख़ुशी खेतों में बीज
बोया करती थी
न अब बारिश होती है
न मां अब फसलें बोती है
हम भी शहर वाले हो गए
मास्क के हवाले हो गए

-अनिल पटेरिया 

खुल कर हँस आवारा...

कल का पता किसे है यारो 
आज की खबर किसे है
जीना उसको ही आया है
बेफिक्री  बसर जिसे है
कौन रोये इस दुनिया में
जब कुछ भी नहीं हमारा
आकर गले लगा ले फकीरी
खुल कर हँस आवारा
राही ठहरा जीवन अपना
चलते ही जाना है
रोना हँसना चार दिनों का
फिर वापस जाना है
इसी ख़ुशी में हँसो अनिल 
हँसना अच्छा होता है
इसी हँसी के लिए तो इंसान
अक्सर आँसू ढोता है

-अनिल पटेरिया 

#हां_कंश_मैं...

#हां_कंश_मैं.. मैं तुच्छ मैं स्वार्थी मैं घृणापात्र मरघट की राख़ मैं नफ़रत की आंख मैं चोर मैं पापी अघोर मैं लोभी मैं कामी मैं चरित्...